फ्लोर टेस्ट क्या है?, Floor Test Kya Hai, What is Floor Test, Floor test kya hota hai, Floor test kaise hota hai, Floor Test kya hai in hindi, Floor test kya hai hindi me

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#क्या है फ्लोर टेस्ट?

फ्लोर टेस्ट. हिंदी में विश्वासमत. यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे पता लगाया जाता है कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाले व्यक्ति या उसकी पार्टी के पास पद पर बने रहने के लिए पर्याप्त बहुमत है या नहीं. उस व्यक्ति या पार्टी को सदन में बहुमत साबित करना होता है. अगर राज्य में सरकार की बात है तो विधानसभा और केंद्र का मुद्दा है तो लोकसभा में बहुमत साबित करना होता है. फ्लोर टेस्ट में विधायकों या सांसदों को सदन में व्यक्तिगत रूप से मौजूद होना होता है. और सबके सामने आपना वोट देना होता है.
विपक्ष सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाती है. इसके बाद फ्लोर टेस्ट किया जाता है. अगर मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री सदन में अपना बहुमत साबित करने में सफल नहीं होते तो सरकार गिर जाती है. विश्वासमत मिलने की स्थिति में सरकार बनी रहती है. कई बार सरकारें जब ये देखती हैं कि उनके पास पर्याप्त संख्या में विधायक नहीं हैं, तो विश्वास मत से पहले ही इस्तीफा हो जाता है. जैसा कि कर्नाटक के मामले में हुआ था. बहुमत साबित नहीं कर पाने की वजह से येदियुरप्पा को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा था.
फ्लोर टेस्ट में राज्यपाल का किसी भी तरह से कोई हस्तक्षेप नहीं होता. फ्लोर टेस्ट स्पीकर के सामने होता है.


एमपी विधानसभा में कुल 230 सीटें हैं. लेकिन दो विधायकों के बाद अभी कुल संख्याबल 228 है.

#कैसे शुरू हुआ


1994 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से फ्लोर टेस्ट बहुमत जांचने का जरिया बना. दरअसल हुआ यह है कि 1988 में एसआर बोम्मई के नेतृत्व में कर्नाटक में सरकार बनी. वे जनता पार्टी के बड़े नेता थे. 1989 में कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल ने केंद्र सरकार के कहने पर उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया. सरकार बर्खास्त करने का कारण बोम्मई के पास बहुमत नहीं होना बताया गया. लेकिन बोम्मई का दावा था कि उनके पास पूरा बहुमत है. उन्होंने राज्यपाल के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.
कई सालों तक चली सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में फ्लोर टेस्ट को ही बहुमत साबित करने का तरीका माना. कोर्ट ने कहा कि जहां पर भी लगे कि सरकार के पास बहुमत नहीं है वहां पर सदन में बहुमत हासिल करना होगा. इसके बाद से फ्लोर टेस्ट ही बहुमत साबित करने का तरीका होता है.


#फ्लोर टेस्ट से पहले जारी होता है व्हिप

विधायक पार्टी लाइन पर ही चलें. पार्टी के कहने पर सदन में पहुंचकर वोट करें. इसके लिए पार्टियां अपने सांसदों-विधायकों के लिए तीन तरह के व्हिप जारी करती हैं. एक लाइन का व्हिप, दो लाइन का व्हिप और तीन लाइन का व्हिप. तीन लाइन का व्हिप सबसे कठोर होता है. व्हिप एक तरह का आदेश होता है जो पार्टियां जारी करती हैं. इसके जारी होने पर विधायकों को सदन में जाना ही पड़ता है और वोट भी पार्टी लाइन पर ही डालना होता है. व्हिप के उल्लंघन पर दलबदल कानून के तहत सदन से बर्खास्तगी की कार्रवाई तक की जा सकती है. ऐसे में फ्लोर टेस्ट से पहले पार्टियां व्हिप जारी करती हैं.

#होता कैसे है ये फ्लोर टेस्ट

फ्लोर टेस्ट ध्व्निमत, ईवीएम द्वारा या बैलट बॉक्स किसी भी तरह से किया जा सकता है. लेकिन इसमें स्पष्ट होना चाहिए कि बहुमत किस तरफ है. ऐसे में ध्वनिमत यानी जोर से बोलकर पक्ष या विपक्ष में होने का ऐलान करना. लेकिन ध्वनिमत से फ्लोर टेस्ट में गड़बड़ी की शिकायतें होती हैं. ऐसे में पक्ष या विपक्ष के सदस्यों की संख्या जानने के लिए संख्या गिनी जाती है. इस प्रक्रिया के दौरान विधायक दो हिस्सों में बंट जाते हैं.
एक तरफ पक्ष वाले और दूसरी तरफ विपक्ष वाले. इसके अलावा लॉबी बंटवारे के जरिए भी फ्लोर टेस्ट होता है. इसमें विधायक एक-एक करके सदन की लॉबी में आते हैं. यहां पर रजिस्टर में वे साइन करते हैं. रजिस्टर में दो सेक्शन बने होते हैं. एक तरफ पक्ष और दूसरी तरफ विपक्ष का सेक्शन होता है. जिस तरफ ज्यादा वोट होंगे वह सरकार का गठन कर सकती है.
अगर वोटिंग के दौरान वोट बराबर रहते हैं तो फिर स्पीकर वोट करता है. और उसके वोट से सरकार का फैसला होता है.

#और कराता कौन है फ्लोर टेस्ट

फ्लोर टेस्ट का फैसला स्पीकर करता है. अगर स्पीकर का चुनाव नहीं हुआ है तो पहले प्रोटेम स्पीकर को नियुक्त किया जाता है. प्रोटेम स्पीकर अस्थायी स्पीकर होता है. किसी भी नई विधानसभा या लोकसभा के चुने जाने पर प्रोटेम स्पीकर बनाया जाता है. यह जिम्मा अक्सर सदन के सबसे अनुभवी सदस्य को दिया जाता है. उसका काम सदन के सदस्यों को शपथ दिलाना और स्पीकर का चुनाव कराना होता है. स्पीकर के चुनाव के बाद फ़्लोर टेस्ट की प्रक्रिया शुरू होती है. और बहुमत साबित करना होता है.
#एक होता है कंपोजिट फ्लोर टेस्ट
इसके अलावा एक कंपोजिट फ्लोर टेस्ट भी होता है. यह तब होता है जब एक से अधिक व्यक्ति या पार्टियां सरकार बनाने का दावा पेश करती है और बहुमत साफ नहीं होता है. ऐसा 24 फरवरी, 1998 को हुआ था. उत्तर प्रदेश में जगदम्बिका पाल और कल्याण सिंह दोनों ने सरकार बनाने का दावा पेश किया था. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने यूपी असेंबली में कंपोजिट फ्लोर टेस्ट कराने को कहा था. इसके तहत विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया और बहुमत परीक्षण किया गया. इस कंपोजिट फ्लोर टेस्ट में कल्याण सिंह जीते थे. उन्हें 225 वोट मिले थे जबकि जगदम्बिका पाल को 196 वोट मिले थे.
एमपी के राज्यपाल लालजी टंडन के साथ शिवराज सिंह चौहान.

#और एमपी के हालात

मध्य प्रदेश विधानसभा में कुल 230 सीटें हैं. दो विधायकों के निधन के चलते दो सीटें खाली हैं. साथ ही कांग्रेस के छह विधायकों के इस्तीफे हो चुके हैं. ऐसे में यह है एमपी विधानसभा का गणित-
वर्तमान में कुल विधायक- 222
बहुमत के लिए चाहिए 112 विधायक
कांग्रेस-108
भाजपा-107
निर्दलीय-4
बसपा-2
सपा-1
अभी बसपा, सपा और निर्दलीय कांग्रेस के साथ हैं. लेकिन कांग्रेस के 16 विधायक अभी भी बागी हैं. अगर 16 विधायकों का इस्तीफा मंजूर कर लिया जाता है तो विधानसभा में कुल विधायक 202 होंगे. कांग्रेस विधायकों का 92 का आंकड़ा हो जाएगा. इनमें अगर बसपा, सपा और निर्दलीयों को कांग्रेस के साथ माना जाए तो आंकड़ा 99 होगा. वहीं बीजेपी के पास 107 विधायक हैं. तो पलड़ा बीजेपी का भारी होगा.



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